हिंदी आलोचना :-
हिंदी साहित्य में आलोचना विधा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। परंतु आजकल अधिकांश लेखक इस विधा के प्रति उदासीन होते दिख रहे हैं। ऐसे समय में "सुधीश पचौरी" की एक पुस्तक आई है जिसके माध्यम से हिंदी आलोचना को समग्रता में समझा जा सकता है। इस पुस्तक में आलोचना के नए प्रतिमान स्थापित करने का प्रयास किया गया है। लेखक ने रचना से टकराने और उसके आधार पर उसकी व्याख्या करने का आग्रह किया है
इसकी दयनीय स्थिति क्यों हुई, इसके कारणों का जानने की गंभीर कोशिश नहीं होती। ये कोशिश इसलिए नहीं होती है कि अगर इन कारणों तक पहुंचेगे तो हिंदी आलोचना के पुराने गढ़ और मठ ध्वस्त होने लगेंगे। फिर भी आलोचना के सिद्धांतों की नकल करते हुए पूर्व में जो विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएं की गई है, वे सारी मान्यताएं संदेह के घेरे में आ जाएंगी। संस्कृत काव्यशास्त्र में रचना को समझने की जो प्रविधि है वह बहुत ही वैज्ञानिक है। इसमें जिस शब्द शक्ति की बात है, | वह पाश्चात्य आलोचना में कहाँ दिखाई। देती है। हमारे देश का रस सिद्धांत या ध्वनि सिद्धांत कितनी बारीकी से कविता की विन्यस्त करता है, इसकी कल्पना भी आइ. ए. रिचडर्स का नहीं थी। जिस विदेशी लेखक को रस सिद्धांत या ध्वनि | सिद्धांत के बारे में जानकारी नहीं थी, उससे सौखकर भारतीय आलोचक हिंदी कविता की व्याख्या कर रहे थे।
पश्चिम के आलोचकों के अलावा हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी सिद्धातों के आधार पर रचना की आलोचना की गई। इस विचारधारा के लेखकों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों की जड़ता को अपनी ताकत बनाने की कोशिश की। परिणामस्वरूप मार्क्सवादी आलोचना जड़ होती चली गई। रामचंद्र शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने रचना से मुठभेड़ करते हुए आलोचना के अपने प्रतिमान बनाए। कुछ हद तक नामवर सिंह ने भी। नामवर के बाद जा भी ख्वात आलोचक हुए वे रचना से टकराने में हिचकते नजर आते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में वे रचना को लेकर समाज की आर जाते तो है, लेकिन समग्रता से मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। इसका एक और दुष्परिणाम यह हुआ कि रचना को खोलने के जो औजार रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद, द्विवेदी, रामविलास शर्मा के यहां दिखाई देते हैं के बाद के आलोचकों के यहां नहीं दिखते है| इन औजारों की अनुपस्थिति के कारण हिंदी आलोचना की धार कुद होती. चली गई और इस विधा में एक वैचारिक सन्नाटा पसरता गया। अशोक वाजपेयी कभी कभार आलोचना में तलवारबाजी, करते हैं लेकिन वे भी इस विधा की गतिशील नहीं बना पाते हैं। उनको अपनी सीमाएं हैं जिसे वह पार नहीं कर पाते हैं। बाद के आलोचकों ने भी रचना के पाठ में समय के साथ हो रहे बदलाव को पकड़ने की कोशिश नहीं की और वे आलोचना के | नए प्रतिमान गढ़ नहीं पाए।
पिछले दिनों सुधीश पचौरी की एक पुस्तक आई है नयी साहित्यिक सांस्कृतिक सिद्धान्तिकिया इस पुस्तक में सुधीश पचौरी ने आलोचना के नए प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश की है। उन्होंने रचना से टकराने और फिर 'उसके आधार पर उसकी व्याख्या करने का आग्रह किया है। सुधीश पचौरी कहते है कि रचना केवल रचना नहीं होती, वह एक जटिल नेटवर्क का हिस्सा होती है। इसे व अलग तरीके से सामने रखते हैं। इस संदर्भ में वे जायसी की पद्मावत और तुलसीदास के रामचरितमानस का उदाहरण देकर नया प्रतिमान गढ़ने का प्रयास करते है। वह बताते हैं कि रामचंद्र शुक्ल ने करीब 90 वर्ष पहले जायसी के पद्मावत की भूमिका लिखी थी और उसे प्रेमगाथाओं की काव्य परंपरा में ऊंचा स्थान दिया था। इसमें उन्होंने लौकिक प्रेम की अलौकिकता के बारे में बताया था। शुक्ल जी का यह पाठ हो पचावत का अंतिम पाठ बन गया। उनकी स्थापना है कि जैसे ही संजय लीला भंसाली ने 2017 में फिल्म प्रचावत बनानी आरंभ की तो इसका नया पाठ सामने आने लगा। फिल्म को लेकर विवाद बढ़ा तो पद्मावत के तीन पाठ सामने आए। सुधीश पचौरी मानते हैं कि पद्मावत का पहला पाठ | फिल्मी पाठ था जिसे निर्माता निर्देशक बना रहा था जो दो सौ करोड़ रुपये की आर्थिकी से जुड़ा था। दूसरा पाठ करणी सेना का क्षत्रियवादी (जातिवादी) पाठ था जिसमें इस्लाम विरोधी पाठ भी सक्रिय था। तीसरा पाठ राजनीतिक रहा जिसे संसद की बहसों और चुनाव के दौरान देखा गया। इसके बाद पचावत का अकादमिक पाठ भी बदला। इसी तरह से जब तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की थी तो उस समय का उसका पाठ अलग था और अब बिल्कुल अलग है। अब उसको पावर टेक्स्ट कहा जा सकता है।
पुस्तक में सुधीश पचौरी ने हिंदी आलोचना को सीमाओं पर ठीक से विचार किया है। वह मानते हैं कि आरंभ में हिंदी आलोचना स्वयं को संस्कृत से जोड़कर देखती थी। धीरे-धीरे वह इससे दूर होती चली गई। बाद में अंग्रेजी साहित्य शास्त्र ने उसकी जगह ले ली। वह कहते हैं कि संस्कृत का काव्यशास्त्र जो हिंदी को उत्तराधिकार में मिला था, उसकी कुंजिया तो बना ली गई, लेकिन उसमें गहरे नहीं। उतरा गया। इसलिए उसका नया संस्कार नहीं हो सका। पचौरी ने इसमें भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा से रस, छंद, अलंकार, राति, ध्वनि आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने ध्वनि सिद्धांत के पुनर्पाठ की बात भी की है और पश्चिम के सिद्धांत और सिद्धांतकारों की स्थापनाओं से तुलना करके इसकी श्रेष्ठता साबित की है। हिंदी आलोचना को अगर कठघरे में खड़ा करना है तो इस तरह से करना होगा जैसे सुधीश पचौरी ने किया है। यदि हमें हिंदी आलोचना की दुर्दशा की बात करनी है तो उसकी मूल गलतियों को लेकर गंभीरता से विमर्श करना होगा। इसका महत्वपूर्ण लाभ यह होगा कि जो ऐतिहासिक भूल हुई है, उसका परिमार्जन हो सकमा ।